चंपारण सत्याग्रह शताब्दी पर विशेष
लेखक: अरुण तिवारी
किसानों
का शोषण बंद हो। चंपारण सत्याग्रह, इसी सच का आग्रह था। चंपारण सत्याग्रह
के सौ साल पूरे होने पर भी क्या किसानों को शोषण रुका है ? मृत किसानों के
नरमुण्डों को तमिलनाडु से लाकर जंतर-मंतर पर जमें किसानों के सत्याग्रह की
क्या कोई सुन रहा है ? प्रधानमंत्री कार्यालय के समक्ष स्वयं को नग्न कर
पुलिस जीप से बाहर निकलने के बावजूद क्या शासन ने उनके सत्याग्रह का सम्मान
किया ? दुखद है कि प्रधानमंत्री जी ने भी 'स्वच्छाग्रह' कर अपने कर्तव्य
की इतिश्री कर ली है।
स्वच्छाग्रह
का सच यह है कि राज्यों ने स्वच्छ भारत अभियान को घर-घर शौचालय तक सीमित
मान लिया है। 'घर-घर शौचालय' के लक्ष्य की प्राप्ति को लेकर बेताबी के चलते
छत्तीसगढ़ में कहीं बिना शीट, कहीं बिना दीवार, तो कहीं बिना गड्ढे के ही
शौचालय बना दिए गये हैं। जहां शौचालय बन भी गये हैं, उनमें से ज्यादातर को
ग्रामीण अन्य उपयोग में ला रहे हैं। क्यों ? क्योंकि यह सब जन-जरूरत और
जन-मानस समझे बगैर किया जा रहा है। 'घर-घर शौचालय' गांधी जी के सबसे प्रिय
गांव, गरीब, आदिवासी और किसान का भला करेगा या बुरा ? इसका आकलन करना तो दूर, सच सुनने की सहिष्णुता भी नहीं दिखाई जा रही।
दीपाली का सत्याग्रह
मध्य
प्रदेश के आदिवासी कल्याण विभाग की आयुक्त दीपाली रस्तोगी ने सच कहने की
कोशिश की, तो उन्हे कारण बताओ नोटिस थमा दिया गया। दीपाली 1994 बैच की
आई.ए.एस. अधिकारी हैं। उन्होने एक अंग्रेजी अखबार में लेख लिखकर शौचालय के
आने के साथ वाली खाद-पानी संबंधी चुनौतियों सामने रखी हैं। निस्संदेह, लेख
लिखते हुए दीपाली इतनी असहज हुई हैं कि उन्होने यहां तक लिख डाला कि गोरों
के कहने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खुले में शौचमुक्त अभियान
चलाया,, जिनकी वाशरूम हैबिट भारतीयों से अलग हैं। दीपाली ने लिखा कि जो
पीने के पानी से जूझ रहे हैं, वे शौचालय के लिए पानी कहां से लायेंगे।
हमारा मानना है कि ‘घर-घर शौचालय’ के दूरगामी दुष्परिणामों को जो कोई भी
देख पा रहा होगा, वही असहज हो उठेगा। दीपाली रस्तोगी के सत्याग्रह का
समर्थन करें या विरोध यह तय करने से पहले घर-घर शौचालय का सच जानना जरूरी
है।
कितना उचित घर-घर शौचालय ?
यह
सच है कि कचरा, पर्यावरण का दुश्मन है और स्वच्छता, पर्यावरण की दोस्त।
कचरे से बीमारी और बदहाली आती है और स्वच्छता से सेहत और समृद्धि।
ये
बातें महात्मा गांधी भी बखूबी जानते थे और हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री
श्री नरेन्द्र भाई मोदी भी। इसीलिए गांधी जी ने स्वच्छता को, स्वतंत्रता से
भी ज्यादा जरूरी बताया। मैला साफ करने को खुद अपना काम बनाया। गांवों में सफाई
पर विशेष लिखा और किया। कुंभ मेले में शौच से लेकर सुर्ती की पीक भरी
पिचकारी से हुई गंदगी से चिंतित हुए। श्रीमान मोदी ने भी स्वच्छता को
प्राथमिकता पर रखते हुए स्वयं झाङू लगाकर अपने प्रधानमंत्रित्व काल के पहले
ही वर्ष 2014 में गांधी जयंती को ’स्वच्छ भारत मिशन’ की शुरुआत की।
वर्ष-2019 में गांधी जयंती के 150 साल पूरे होने तक 5000 गांवों में दो लाख
शौचालय तथा एक हजार शहरों में सफाई का लक्ष्य भी रखा। स्वच्छता सप्ताह के
रूप में बाल दिवस से स्कूलों में विशेष स्वच्छता अभियान भी चलाया, किंतु
यदि मुझसे पूछे कि पर्यावरणीय अनुकूलता की दृष्टि से गांधी और मोदी के
स्वच्छता विचार में फर्क क्या हैं ? ..तो मेरा जवाब कुछ यूं होगा - ''मोदी
का स्वच्छता विचार, कचरा बटोरना तो जानता है, किंतु उसका प्रकृति अनुकूल
उचित निष्पादन करना नहीं जानता। गांधी, दोनो जानते थे। गांधी जानते थे कि
यदि कचरे का निष्पादन उचित तरीके से न हो, तो ऐसा निष्पादन पर्यावरण का
दोस्त होने की बजाय, दुश्मन साबित होगा।''
मोदी
जी ने खुले शौच से होने वाली गंदगी से निजात का उपाय, सेप्टिक टैंक अथवा
सीवेज पाइपों में कैद कर मल को बहा देने में सोचा। संप्रग सरकार की निर्मल
ग्राम योजना में भी बस गांव-गांव शौचालय ही बनाये गये थे, किंतु कम से कम
ठेठ गांवों के मामले में गांधी, सिद्धांततः इसके खिलाफ थे।
शौचालय नहीं, सोनखाद
शहरों
के मामले में गांधी की यह राय अवश्य थी कि शहरों की सफाई का शास्त्र हमें
पश्चिम से सीखना चाहिए; किंतु वह गांवों में खुले शौच का विकल्प शौचालय की
बजाय, शौच को एक फुट गहरे गड्ढे में मिट्टी से ढक देना मानते थे। सहज भाषा व
भाव में उन्होने इस विकल्प को ’टट्टी पर मिट्टी’ का नाम दिया। ’मेरे सपनों
के भारत’ पुस्तक में वह सफाई और खाद पर चर्चा करते हुए लिखते हैं - ''इस
भंयकर गंदगी से बचने के लिए कोई बङा साधन नहीं चाहिए; मात्र मामूली फावङे
का उपयोग करने की जरूरत है।'' दरअसल, गांधी जी, शौच और कचरे को सीधे-सीधे
’सोनखाद’ में बदलने के पक्षधर थे। वह जानते थे कि मल को संपत्ति में बदला
जा सकता है। श्री मोदी जी को भी यह जानना चाहिए।
गांधी
कहते थे कि इससे अनाज की कमी पूरी जा सकती है। इस सत्य को गांव के लोग
आपको आज भी इस उदाहरण के तौर पर बता सकते हैं कि बसावट की बगल के खेत की
पैदावार अन्य खेतों की तुलना में ज्यादा क्यों होती है। आधुनिक भारत का
सपना लेकर चलने वाले नेहरू से लेकर ’हरित क्रांति’ के योजनाकारों ने भी इसे
नहीं समझा। वे, विकल्प के तौर पर रासायनिक उर्वरक और रासायनिक कीटनाशक ले
आये। उसका खामियाजा प्राकृतिक जैवविविधता की हत्या, मिट्टी की दीर्घकालिक
उपजाऊ क्षमता में कमी और सेहत के सत्यानाश के रूप में हम आज तक झेल रहे
हैं। मोदी जी, ऐसा न होने दें।
इस
बात को वैज्ञानिक तौर पर यूं समझना चाहिए। गांधी जी लिखते हैं - ''मल चाहे
सूखा हो या तरल, उसे ज्यादा से ज्यादा एक फुट गहरे गड्ढा खोदकर ज़मीन में
गाङ दिया जाय। ज़मीन की ऊपरी सतह सूक्ष्म जीवों से परिपूर्ण होती है और हवा
एवम् रोशनी की सहायता से, जो कि आसानी से वहां पहुंच जाती है; वहां जीव,
मल-मूत्र को एक हफ्ते के अन्दर एक अच्छी, मुलायम और सुगन्धित मिट्टी में
बदल देते हैं।'' सोपान जोशी की पुस्तक ’जल थल और मल’ इस बारे में और खुलासा
करती है। वह बताती है कि एक मानव शरीर एक वर्ष में 4.56 किलो नाइट्रोजन,
0.55 किलो फाॅसफोरस और 1.28 किलो पोटाशियम का उत्सर्जन करता है। 115 करोङ
की भारतीय आबादी के गुणांक में यह मात्रा करीब 80 लाख टन होती है। मानव
मल-मूत्र को शौचालयों में कैद करने से क्या हम, हर वर्ष प्राकृतिक खाद की
इतनी बङी मात्रा खो नहीं देंगे ?
त्रिकुण्डीय
प्रणाली वाले 'सेप्टिक टैंक] तथा मल-मूत्र को दो अलग-अलग खांचों में भरकर
'इकोसन' के रूप में हम इसमें से कुछ मात्रा बचा जरूर सकते हैं, लेकिन यह हम
कैसे भूल सकते हैं कि खुले में पङे शौच के कंपोस्ट में बदलने की अवधि
दिनों में है और सीवेज टैंक व पाइप लाइनों में पहुंचे शौच की कंपोस्ट में
बदलने की अवधि महीनों में; क्यांेकि इनमें कैद मल का संबंध मिट्टी, हवा व
प्रकाश से टूट जाता है। इन्ही से संपर्क में बने रहने के कारण खेतों में
पङा मानव मल आज भी हमारी बीमारी का उतना बङा कारण नहीं है, जितना बङा कि
शोधन संयंत्रों के बाद हमारी नदियों में पहुंचा मानव मल। हम खुले में शौच
से ज्यादा, मलीन जल, मलीन मिट्टी और मलीन हवा के कारण बीमार और कर्जदार हो
रहे हैं।
कचरा निष्पादन का सिद्धांत
गांवों
में मानव मल निष्पादन का गांधी तरीका, कचरा निष्पादन के सर्वश्रेष्ठ
सिद्धांत के पूरी तरह अनुकूल है। सिद्धांत है कि कचरे को उसके स्त्रोत पर
निष्पादित किया जाये। कचरा चाहे मल हो या मलवा, कचरे को ढोकर ले जाना
वैज्ञानिक पाप है। अनुभव बताता है कि शौचालय कभी कहीं अकेले नहीं जाता।
शौचालय के पीछे-पीछे जाती है, मोटर-टंकी और बिजली-पानी की बढी हुई खपत। एक
दिन जलापूर्ति की पाइप लाइनें, उस इलाके की जरूरत बन जाती है। राजस्व के
लालच में सीवर की पाइप लाइनें सरकार पहुंचा देती है। इससे, कचरा और सेहत के
खतरे बिना न्योते ही चले आते हैं। दुनिया में हर जगह यही हुआ है। हमारे
यहां यह ज्यादा तेजी से आयेगा; क्योंकि हमारे पास न मल शोधन पर लगाने को
प्र्याप्त धन है और न इसे खर्च करने की ईमानदारी। ’घर-घर शौचालय’ शुचिता से
ज्यादा बाज़ार का व्यापार बढ़ाने वाला खेल बनने वाला है। सोनखाद घटेगी;
रासायनिक उर्वरक और रोगी बढ़ेगे। हकीकत यही है। अभी शहरों के मल का बोझ
हमारी नगरनिगम व पालिकाओं से संभाले नहीं संभल रहा। जो गांव पूरी तरह
शौचालयों से जुङ गये हैं, उनका तालाबों से नाता टूट गया है। गंदा पानी,
तालाबों में जमा होकर उन्हे बर्बाद कर रहा है। जरा सोचिए! अगर हर गांव-हर
घर में शौचालय हो गया, तो हमारी निर्मलता और ’सुनहली खाद’ कितनी बचेगी ?
शौचालय नहीं, घर-घर कंपोस्ट से बनेगी बात
समझने
की बात है कि एकल होते परिवारों के कारण मवेशियों की घटती संख्या और
परिणामस्वरूप घटते गोबर की मात्रा के कारण जैविक खेती पहले ही कठिन हो गई
है। कचरे से कंपोस्ट का चलन अभी घर-घर अपनाया नहीं जा सका है। अतः गांधी
जयंती पर स्वच्छता, सेहत, पर्यावरण, गो, गंगा और ग्राम रक्षा से लेकर
आर्थिकी की रक्षा के चाहने वालों को पहला संदेश यही है कि गांवों में
'घर-घर शौचालय' की बजाय, 'घर-घर पानी निकासी गड्ढा' और 'घर-घर कंपोस्ट' के
लक्ष्य पर काम करें। कचरा निष्पादन हेतु गांधी जी ने कचरे को तीन वर्ग में
छंटाई का मंत्र बहुत पहले बताया और अपनाया था: पहले वर्ग में वह कूङा,
जिससे खाद बनाई जा सकती हो। दूसरे वर्ग मंे वह कूङा, जिसका पुर्नोपयोग संभव
हो; जैसे हड्डी, लोहा, प्लास्टिक, कागज़, कपङे आदि। तीसरे वर्ग में उस कूङे
को छांटकर अलग करने को कहा, जिसे ज़मीन में गाङकर नष्ट कर देना चाहिए। कचरे
के कारण, जलाश्यों और नदियों की लज्जाजनक दुर्दशा और पैदा होने वाली
बीमारियों को लेकर भी गांधी जी ने कम चिंता नहीं जताई।
गोरक्षा
और सेवा के महत्व बताते हुए भी गांधी जी ने गोवंश के जरिए, खेती और
ग्रामवासियों के स्वावलंबन का ही दर्शन सामने रखा। वह इसे कितना महत्वपूर्ण
मानते थे, आप इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि उन्होने गोवंश रक्षा
सूत्रों को बार-बार समाज के समक्ष दोहराया ही नहीं, बल्कि जमनालाल जी जैसे
महत्वपूर्ण व्यक्ति को गो-पालन कार्य को आगे बढाने का दायित्व सौंपा। वह
जानते थे कि जो खेती की रक्षा के लिए सच है, वही गोवंश की रक्षा के लिए भी
सच है। व्यापक संदर्भ में गांधी जी बार-बार कहते थे कि हमारे जानवर,
हिंदुस्तान और दुनिया के गौरव बन सकते हैं। पर्यावरणीय गौरव इसमें निहित है
ही।
दिमाग शुद्ध, तो पर्यावरण शुद्ध
गांधी
साहित्य, पर्यावरण के दूसरे पहलुओं पर सीधे-सीधे भले ही बहुत बात न करता
हो, लेकिन संयम, सादगी, स्वावलंबन और सच पर आधारित और सही मायने में सभ्य
और सांस्कारिक उनका जीवन दर्शन, पर्यावरण की वर्तमान सभी समस्याओं के
समाधान प्रस्तुत कर देता है। एकादश व्रत भी एक तरह से मानव और पर्यावरण के
संरक्षण और समृद्धि का ही व्रत है। ''प्रकृति हरेक की जरूरत पूरी कर सकती
है, लेकिन लालच एक व्यक्ति का भी नहीं।'' जब गांधी यह कहते हैं, तो इसी से
साथ आधुनिकता और तथाकथित विकास के दो पगलाये घोङों के हम सवारों को लगाम
खींचने का निर्देश स्वतः दे देते हैं।
कितनी उचित उलटबांसी ?
गंदगी,
अच्छाई या बुराई.... इस दुनिया में जो कुछ भी घटता है, वह हकीकत में घटने
से पहले किसी ने किसी के दिमाग में घट चुका होता है। यह बात पश्चिम ने भी
समझी। गौर कीजिए कि उसने हमें पहली या दूसरी दुनिया न कहकर, 'तीसरी दुनिया'
कहा। इस शब्द से उसने हमें मुख्यधारा से अलग-थलग पिछङे, गंवार, दकियानूसी
और अज्ञानी होने का एहसास कराने का शब्दजाल रचा। हमारे प्रकृति अनुकूल,
समय-सिद्ध व स्वयं-सिद्ध ज्ञान पर से हमारे ही विश्वास को तोङा; फिर अपनी
हर चीज, विधान व संस्कार को आधुनिक बताकर हमें उसका उपभोक्ता बना दिया।
संयम, सादगी और सदुपयोग की जगह, सभ्यता के नाम पर अतिभोग तथा ’उपयोग करे और
फेंक दो’ का असभ्य सिद्धांत थमा दिया।
सब
संस्कार बदल गये। परमार्थ, फालतू काम है; स्वार्थ से ही सिद्धि है।
’ग्लोबल वार्मिंग’, दुनिया के लिए होगी, तुम्हारे लिए तो ए. सी. है। अपना
कमरा.. अपनी गाङी के भीतर ठंडक की तरफ देखो; दुनिया जाये भाङ में। घर का
कचरा बाहर और अतिभोग का सुविधा-सामान अंदर। इसके लिए अब सिर्फ पेट नहीं,
तिजोरी भरो। इसीलिए खेती बाङी, निकृष्ट बता दी गई और दलाली, चाकरी से भी
उत्तम। कहा कि गांव हटाओ, शहर भगाओ। कर्ज लो, घी पियो। नदियां मारने के लिए
कर्ज लो। नदियों को जिलाने के लिए कर्ज लो। कुदरती जंगल काटो; खेत बनाओ या
इमारती जंगल लगाओ। जानते हुए भी कि यह धरती का पेट खाली कर पानी की कंगाली
का रास्ता है; हमने नदी-तालाब से सिंचाई की बजाय, नहर और धरती का सीना चाक
करने वाले टयुबवैल, बोरवैल, समर्सिबल.. जेटपंप को अपना लिया। सेप्टिक
टैंकों से भी आगे बढ़कर सीवेज पाइपों वाले आधुनिक हो गये। यूकेलिप्टस याद
रहा; पंचवटी भूल गये। जहां जरूरी हो; जहां कोई और विकल्प शेष न हो; किंतु
सभी जगह ? यह कितना ठीक है ? जहां जेब अनुमति दे; इसी एक शर्त पर सारे
निर्णय ! ओफ्फ !!
बापू का रास्ता
इन
सब उलटबांसियों के बीच रास्ते बनाते हुए कभी आया एक दुबला-पतला बूढ़ा, आज
फिर सेवाग्राम संचालकों से कहना चाहता है - ''खजूरी, गरीबों का वृक्ष है।
उसके उपयोग तुम्हें क्या बताऊं। अगर सब खजूरी कट जाये, तो सेवाग्राम का
जीवन बदल जायेगा। खजूरी हमारे जीवन में ओतप्रोत है।..... खजूरी के उपयोग का
हिसाब करो।'' जिस महात्मा गांधी को खजूरी जैसे सहज उपलब्ध दरख्त और छोटी
से छोटी पेंसिल को सहेजने और उसका हिसाब रखने जैसी बङी-बङी आदतें थीं;
पर्यावरण और स्वच्छता के उनके सिद्धांतों को लिखकर या पढकर नहीं, बल्कि आदत
बनाकर ही जिंदा रखा जा सकता है। आइये, बनायें।
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उपलेख
सेप्टिक टैंक और बलवंत की झिङकी
बात
फरवरी, 1941 की है। टाइफाइड नियंत्रण को लेकर डाॅक्टरों की सलाह से गांधी
जी ने सेवाग्राम में सेप्टिक टैंक बनाने का निर्णय लिया। जानकरी मिली, तो
बलवंत सिंह भङक उठे। वह गांव समसपुर, तहसील खुर्जा, जिला बुलंदशहर, उत्तर
प्रदेश के रहने वाले थे। गांधी ने बलवंत को उस समय सेवाग्राम में गोशाला
आदि का जिम्मेदार नियुक्त किया हुआ था। बलवंत ने गांधी जी को कङी चिट्ठी
लिखी। उनकी बदली हुई नीति को लेकर दुःख और आश्चर्य प्रकट किया। इसे सोने को
पानी करने का काम बताया। पाखाना-सफाई और उसकी खाद से प्रकृति व जीव-जगत्
के स्वार्थ के घनिष्ठ संबंध के गांधी सिद्धांत की याद दिलाई।
'बापू
की छाया में’ पुस्तक में शामिल अपने एक पत्र में श्री बलवंत सिंह जी ने
बापू को लिखा है - ''जैसा कोई नचाये, वैसा ही नाच नाचते रहेंगे, तो शायद
आपके सत्तर वर्ष के बूढे पैर जवाब दे बैठेंगे। किसी की भी अच्छी चीज को
अपनाने या उसका प्रयोग करने का आपका स्वभाव है। जनसंग्रह करना तो आपका धंधा
है। लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि जल लाये वो सोना, जिससे नाक छवे;अब तक
आप ढोल पीट-पीट कर कहते आये हैं कि यदि हिंदुस्तान के सात लाख गांवों का
पाखाना सुव्यवस्थित रूप खाद के काम में लाया जाये, तो उस का कीमिया बन सकता
है। आपकी जिस बात को काटने की हिम्मत किसी में नहीं है और हो भी कैसे सकती
है ? जानवर, वनस्पति खाकर भी बेशकीमती खाद ज़मीन को वापस देते हैं, तो
मनुष्य ज़मीन की उत्पत्ति का सार यानी अनाज खाकर कितना कीमती खाद दे सकता है
? इसीलिए तो पाखाने को सोनखाद कहा जा सकता है न ?’''
बलवंत
सिंह जी ने पाखाने को सेप्टिक टैंक में यूं दफना देने को किसान और ज़मीन के
साथ अन्याय माना। गांधी ने बलवंत की झिङकी को उचित माना और उत्तर में
आश्वस्त किया कि
खाद को बरबाद नहीं होने देंगे।
शौचालय की बाध्यता पर सवाल
लेखक : अरुण तिवारी
यह
सच यह है कि शहरों की बसावट आज शौचालयों की मांग करती है। लेकिन जब बात
पूरे भारत के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कह रहा हो, तो नजरअंदाज भारत के
गांवों की आबादी को भी नहीं कर सकते; खासकर तब, जब निर्मल ग्राम की एक
राष्ट्रीय योजना का लक्ष्य हमारे गांवों में बसी यह 75 फीसदी आबादी ही है।
’निर्मल ग्राम’ का सपना देखने वाले तर्क देने वाले कह सकते हैं कि शौचालय न
होने के कारण करोङों ग्रामीणों को आज भी खुले में शौच जाना पङता है। इससे
गंदगी बढती है। खुले में शौच करने के कारण हमारे जलस्त्रोतों में
काॅलीफाॅर्म बढता है। बीमारियां बढती है। महिलाओं को शर्मिदंगी का सामना
करना पङता है। यह देश के लिए शर्म की बात है। ऐसे कई तर्क सुनने में वाजिब
मालूम हो सकते हैं। लेकिन यदि हम आइना रखकर भारत की 75 प्रतिशत ग्रामीण
आबादी वाले नये भारत का अक्स देखें, तो हकीकत इससे जुदा है।
प्रश्न
यह है कि यदि आज गांवों को शौचालयों की इतनी ही जरूरत है, तो ग्रामीण
विकास मंत्रालय की निर्मल ग्राम योजना में बांटे शौचालय दिखावटी होकर क्यों
रह गये हैं ? योजना के तहत् निजी शौचालयों के निर्माण में उत्तर प्रदेश,
बिहार, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान जैसे कई और राज्य के ग्रामीण रुचि
क्यों नहीं दिखा रहे हैं ? मैं इस योजना के तहत् बने शौचालयों में बंधी
बकरी या भरे हुए भूसे के चित्र खूब दिखा सकता हूं। आखिर कोई तो वजह होगी कि
लाख चाहने के बावजूद निर्मल ग्राम योजना केन्द्र सरकार की एक अधूरा सपना
होकर रह गई है ? बताने वाले वजह ग्रामीणों के अनपढ होने को भी बता सकते
हैं। बूढे कहते हैं कि उन्हे शौचालय में पाखाना साफ नहीं उतरता। गांव की
मांजी को शौचालय में घिन आती है।
वजह
कुछ भी हो, भविष्य का संकेत साफ है। निर्मल ग्राम के तहत् घर-घर शौचालय का
यह सपना आगे चलकर प्रकृति और इसके जीवों की सेहत के लिए एक बङे खतरे का
कारण बनने जा रहा है। अनुपात यह है कि जितने ज्यादा शौचालय, उतनी ज्यादा
पानी और बिजली की खपत, उतनी ज्यादा सीवर लाइनें, उतने ज्यादा मल शोधन
संयंत्र, उतना ज्यादा कर्ज-खर्च, उतना ज्यादा प्रदूषण और उतनी ज्यादा मरती
नदियां, उतने ज्यादा विवाद और नदी और हमारी सेहत सुधारने के नाम पर उतना
ज्यादा भ्रष्टाचार। आइये! समझें कि कैसे ?
अतीत के अनुभव
याद
करने की बात है कि आजादी के पहलेे बनारस में जलापूर्ति की पाइप लाइन भी आ
गई थी और अस्सी के गंदे नाले को गंगा से जोङे जाने पर घटना पर मदनमोहन
मालवीय ने विरोध भी जता दिया था। लेकिन आजादी से पहले गंगा व दूसरी नदियों
के ज्यादातर शहरों में न जलापूर्ति के लिए कोई पाइप लाइन थी और न सीवर ढोकर
ले जाने के लिए। नाले भी सिर्फ बारिश का ही पानी ढोते थे। पीने के पानी के
लिए कुंए और हैंडपम्प ही ज्यादा थे। समृद्ध से समृद्ध परिवार भी मोटर से
पानी नहीं खींचते थे। जैसे ही जलापूर्ति की लाइनें पहुंची, पानी और बिजली
की खपत तेजी से बढ गई। इनके पीछे-पीछे फ्लश शौचालयों ने घरों में प्रवेश
किया। राजस्व के लालच में सीवर पाइप लाइनें सरकारें ले आईं। लोगों ने
त्रिकुण्डीय मल शोधन प्रणाली पर आधारित सेप्टिक टैंक तुङवा दिए। बारिश का
पानी ढोने वाले ज्यादातर नाले शौच ढोने लगे। यह शौच आज नदियों की जान की
आफ्त बन गया है। भारत में आज कोई ऐसा शहर ऐसा नहीं, जिसके किनारे की नदी का
पानी बारह मास पीना तो दूर, स्नान योग्य भी घोषित किया जा सके। देश में
कोई एक ऐसी बारहमासी मैदानी नदी नहीं, जिसे मलीन न कहा जा सके। ’निर्मल
ग्राम योजना’ इस मलीनता को और बढायेगी। कैसे ?
भविष्य के खतरे
गांवों
में अभी शौक-शौक में शौचालय पहुंच रहे हैं। बाद में जलापूर्ति और सीवर की
पाइप लाइनें पहुंचेगी ही। कचरा भी साथ आयेगा ही। दुनिया में हर जगह यही
हुआ है। हमारे यहां यह ज्यादा तेजी से आयेगा। क्योंकि हमारे पास न मल शोधन
पर लगाने को प्र्याप्त धन है और न इसे खर्च करने की ईमानदारी। शौचालयों की
भारतीय चुनौतियाँ साफ हैं। परिदृश्य यह है कि हमारे यहां मलशोधन के नाम पर
संयंत्र बढ रहे हैं। खर्च-कर्ज बढ रहा है। कचरा साफ करने का उद्योग बढ रहा
है। ठेके और पीपीपी बढ रहे हैं। नदियों की मलीनता केा लेकर विवाद और आंदोलन
बढ रहे हैं। लेकिन नदी, हम और इसके दूसरे जीव व वनस्पतियों का बीमार होना
घट नहीं रहा। अभी शहरों के मल का बोझ हमारी नगर निगम व पालिकाओं से संभाले
नहीं संभल रहा। जो गांव पूरी तरह शौचालयों से जुङ गये हैं, उनका तालाबों से
नाता टूट गया है। गंदा पानी तालाबों में जमा होकर उन्हे बर्बाद कर रहा है।
जरा सोचिए! अगर हर गांव-हर घर में शौचालय हो गया, तो हमारी निर्मलता कितनी
बचेगी ?
खोखले दावे
मलशोधन
संयंत्रों से ऊर्जा निर्माण के दावे खोखले साबित हो रहे हैं। मलशोधन
पश्चात् शेष शोधित अवजल के पूरे या आधे पुर्नउपयोग का दावा करने की हिम्मत
तो खैर! कोई संयंत्र जुटा ही नहीं पा रहा। हकीकत यही है। देश में जलीय
प्रदूषण व भूजल का संकट पहले ही कम नहीं है, गांव-गांव शौचालय की जिद्द इसे
और गहरायेगी। कचरा साफ करने वाली कंपनियां इससे मुनाफा कमायेंगी। किंतु
इससे गांव आगे चलकर बीमारी के साथ-साथ, पानी के बिल और सीवर के टैक्स में
फंसेगा और देश कर्ज में। यह सुनियोजित है और सुनिश्चित भी, लेकिन सुखांत
नहीं। विश्वास मानिए! अंततः गांव-गांव शौचालय का नारा एक ऐसा बाजारु कुचक्र
साबित होगा, जिससे हम चाहकर भी निकल नहीं सकेंगे। क्या हम-आप यही चाहते
हैं ?
खुले में शौच का उजला पक्ष
यदि नहीं, तो बयान देने वाले हमारे इन प्रिय नेताओं को कोई हकीकत से रुबरु कराये। कोई बताये कि खेतों पर पङा मानव मल बेकार की वस्तु नहीं है। खेतों
में पहुंचा मानवीय मल खेती को समृद्ध करता है। लद्दाख की जिस ठंडी रेती पर
बीज को अंकुरित होने मात्र के लिए जूझना पङता है, वहां सिर्फ और सिर्फ
मानव मल के बूते ही जमाने तक अन्न का दाना पैदा हो रहा। आज भी जो कुछ
थोङी-बहुत खेती है, वह खेतों को उपलब्ध हमारे मानव मल के कारण ही है।
बंगलुरु के ‘हनी शकर्स‘ आज भी मानव मल को घरों से उठाकर खेतों में ही
पहुंचाते हैं। सच है कि खुले में पङे शौच के कंपोस्ट में बदलने की अवधि
दिनों में है और सीवेज टैंक व पाइप लाइनों में पहुंचे शौच की कंपोस्ट में
बदलने की अवधि महीनों में; क्योंकि इनमें कैद मल का संबंध मिट्टी, हवा व
प्रकाश से टूट जाता है। इन्ही से संपर्क में बने रहने के कारण खेतों में
पङा मानव मल आज भी हमारी बीमारी का उतना बङा कारण नहीं है, जितना बङा कि
शोधन संयंत्रों के बाद हमारी नदियों में पहुंचा मानव मल।
सच
यह भी है कि भारत की घूंघट वाली ग्रामीण बहुओं के लिए आज भी खुले में शौच
जाना ही घर की चारदीवारी से बाहर निकलने का एकमात्र सर्वसुलभ माध्यम है।
महाराष्ट्र समेत देश के कई इलाकों में ’निर्मल ग्राम’ के उदाहरण यही हैं।
यही वह वक्त होता है, जब वे अपने मन व जुबां को कुछ खोल पाती हैं या यूं
कहें कि खुले में शौच जाना ही इन्हे हर रोज सामाजिक होने का एक अवसर देता
है, वरना् सास बनने से पहले तक एक ग्रामीण बहू की जिंदगी में सामाजिक होने
के अवसर आज भी कम ही हैं। रही बात दिन में खुलें में शौच जाने की शर्मिंदगी
से बचने की, तो समझ लेने की बात है, हमारे यहां खुले में शौच जाने को
खेते, मैदाने, झाङे या जंगल जाना यूं नहीं कहा जाता था। इनका मतलब ही होता
है खेत, झाङी या मैदान की ओट में शौचकर्म करना। जहां ये झाङी-जंगल बचे हैं, वहां आज भी खुले में शौच जाना हर वक्त सुरक्षित विकल्प है। महिलाओं और पुरुषों के लिए शौच जाने के इलाके और समय का आज भी बंटवारा है।
मैं
यहां कोई दकियानूसी सोच प्रस्तुत नहीं कर रहा हूं; आपके समक्ष कुछ जरूरी
और जमीनी सामाजिक-वैज्ञानिक तथ्य रख रहा हूं। बढते बलात्कार जैसे कुकृत्य
के लिए शौचालय के अभाव को दोषी ठहराना भी आंकङे और हकीकत... दोनो से परे
है। हकीकत यह है कि जिन महानगरों में निजी के अलावा सार्वजनिक शौचालयों की
कोई कमी नहीं, वहां की तुलना में बलात्कार के मामले आप हमारे गांवों में कम
ही पायेंगे। दरअसल, बलात्कार जैसे कुकृत्य के लिए जिम्मेदार सुविधा या
साधन का अभाव नहीं, नैतिकता का अभाव है। कहना न होगा कि झाङी-जंगलों के
साथ-साथ अपनी नैतिकता को पुनजीर्वित करना बेहतर विकल्प है, न कि शौचालय
बनाना। जाहिर है कि जरूरत दो संस्कृतियों और पीढियों के बीच के अंतराल और
भ्रष्टाचार की बढती खाई को इस तरह पाटने की है, ताकि फिर कोई देवालय..
असुरालय बन न सके और जब हम सार्वजनिक शौचालयों में जायें, तो वहां बेशर्म
जुमले लिखने और संङाध के पैदा होने के लिए कोई जगह ही न हो। तब तक इस देश
के बहुमत को न शौचालय चाहिए और न देवालय।
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