यूनेस्को ने यूनाइटेड नेशन्स वर्ल्ड वाटर डेवलपमेंट रिपोर्टः मैनेजिंग वाटर अंडर अनसर्टेंटी एंड रिस्क पेश की है. इस रिपोर्ट में 2009 के विश्व बैंक के दस्तावेज़ का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि भारत में विश्व बैंक के आर्थिक सहयोग से राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण ने 2009 में एक परियोजना चलाई थी, जिसका उद्देश्य 2020 तक बिना ट्रीटमेंट के नाली तथा उद्योगों के गंदे पानी को गंगा में छोड़े जाने से रोकना था, ताकि गंगा के पानी को सा़फ किया जा सके. गंगा के प्रदूषण के लिए खुली जल निकासी व्यवस्था सबसे अधिक ज़िम्मेदार है. लेकिन इस कार्य योजना का कोई विशेष लाभ देखने को नहीं मिला है. इस समय सरकार का एप्रोच शहर केंद्रित होने के बदले ब्रॉडर रीवर बेसिन हो गया है. इस रिपोर्ट ने राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन अथॉरिटी की किसी भी उपलब्धि को नकार दिया है. उसने विश्व बैंक के दोहरे मानदंड की ओर कोई इशारा नहीं किया है. विश्व बैंक ने गंगा नदी की स़फाई के संबंध में विरोधाभासी रु़ख अपनाया है. एक तऱफ वह गंगा नदी पर बांध बनाने के लिए क़र्ज़ देता है, जिससे गंगा के पानी की शुद्धता प्रभावित होती है, तो दूसरी ओर गंगा के निचले भाग में इसे सा़फ करने के लिए आर्थिक सहयोग देता है. बैंक जिस परियोजना में सहयोग कर रहा है, उसके एक दस्तावेज़ में कहा गया है कि गंगा नदी भारत के अलावा नेपाल, चीन और बांग्लादेश से होकर बहती है. जब विश्व बैंक इस बात को जानता था तो फिर उसे किसी एक राष्ट्र के साथ जोड़कर कैसे देख रहा था? यह भी एक विरोधाभास है. यूनेस्को की रिपोर्ट विश्व बैंक के दस्तावेज़ की तरह इस बात को समझने में असफल रही है कि गंगा और मेकांग दोनों ही अंतरराष्ट्रीय सीमा वाली नदियां हैं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि लगभग 1.2 बिलियन लोग खुले में शौच करते हैं, जिसमें आधे से अधिक लोग भारत के हैं. यह तो हज़ारों बार कहा जा चुका है, लेकिन रिपोर्ट में इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि जो लोग घरों में शौच करते हैं, उसके नाले भी नदी में जाते हैं. इससे भी खुले में शौच करने वाले से कम प्रदूषण नहीं फैलता है. लेकिन रिपोर्ट में इस बात का ज़िक्र नहीं किया गया है. शायद इसका ज़िक्र नहीं करने के पीछे मुख्य कारण उस वर्ग से उनका संबंधित होना है, जो घर के अंदर शौच करता है.
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पानी कंपनियां धीरे-धीरे अपना जाल फैला रही हैं. राजधानी में आए-दिन जल संकट की स्थिति उत्पन्न होती रहती है, जिसके पीछे भी सरकार और निजी पानी कंपनियों की साज़िश को नकारा नहीं जा सकता है. अगर सरकार अपने लोगों को पीने का पानी भी मुहैया नहीं कर पाती है, तो ऐसी सरकार को शासन चलाने का नैतिक आधार कहां है.
अगर इस रिपोर्ट की तुलना उस रिपोर्ट से की जाए, जिसे दक्षिण और पश्चिमी भारत के केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के वेस्टर्न घाट पर्यावरण विशेषज्ञों के पैनल ने तैयार किया है, तो पाएंगे कि यूनेस्को की रिपोर्ट के लेखक की पर्यावरण संबंधी सोच कितनी कमज़ोर है. भारतीय पैनल ने कई स्तर के एप्रोच की वकालत की है. उसने ग्राम सभा के माध्यम से पर्यावरणीय सुधार की बात कही है, जिसमें सरकार की भूमिका दूसरे स्तर की होगी. गंगा और मेकांग नदी बेसिन आयोग ने स्वयं को कमज़ोर साबित कर दिया है. वह पर्यावरण सुरक्षा के लिए कोई विशेष काम नहीं कर पाया. लेकिन वेस्टर्न घाट की रिपोर्ट ने एक सही तर्क दिया है, जिसका उपयोग राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किया जाना चाहिए. यूनेस्को की यह रिपोर्ट भारत के राष्ट्रीय जल मिशन को नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (2008) के एक भाग के तौर पर देखती है, जिसमें कलाइमेट चेंज के दुष्प्रभावों को रोकने तथा जल संबंधी समस्याओं के समाधान के लिए कई रणनीतियां बनाई गई हैं. इनका मुख्य लक्ष्य जल संबंधी समस्याओं पर बहस को जन्म देना, लोगों को जागरूक करना, जिन क्षेत्रों में पानी का दोहन ज़्यादा हो रहा है, वहां ध्यान केंद्रित करना तथा लोगों को पानी के सही उपयोग की जानकारी देना है. इस तरह से भारतीय जल मिशन को भी समझने में इस रिपोर्ट के लेखक ने भूल कर दी है. इसी तरह योजना आयोग के 2002 के दस्ताव़ेज का उल्लेख करते हुए इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पानी की आपूर्ति राज्य की ज़िम्मेदारी है, लेकिन केंद्र और राज्य के स्तर पर कई मंत्री इस ज़िम्मेदारी को शेयर करते हैं. स्थानीय सरकारें अब पानी की आपूर्ति की ज़िम्मेदारी निजी कंपनियों को दे रही हैं. इस प्रकार देखा जाए तो यह रिपोर्ट विश्व बैंक के दस्तावेज़ का इस्तेमाल कर पानी के निजीकरण की बात को स्थापित करने की कोशिश कर रही है. इस रिपोर्ट में निजी पानी कंपनियों की असफलता को नहीं दर्शाया गया है, जो विभिन्न तरीक़ों का इस्तेमाल कर पानी को बाज़ार में बेच रही हैं. ये पर्यावरण के लिए खतरा उत्पन्न कर रही हैं. इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि यूनेस्को की रिपोर्ट कोका कोला के सहयोग से किए गए ट्वेंट विश्वविद्यालय के शोध से प्रभावित है.
एक तऱफ सरकार भोजन का अधिकार क़ानून बनाने जा रही है, तो दूसरी तऱफ लोगों को शुद्ध पेयजल से वंचित करने का ष़डयंत्र कर रही है. देश की जल नीति पानी के निजीकरण के लिए रास्ता बना रही है. पीपीपी के नाम पर सरकार पानी को निजी कंपनियों के हवाले करने की साज़िश रच रही है, लेकिन सरकार शायद यह भूल गई कि अगर लोगों को पेयजल से महरूम करने की कोशिश करेगी, तो उसे इसका नतीजा भी भुगतना पड़ेगा. कहीं ऐसा न हो कि पानी की जगह खून बहने लगे और न तो सरकार रहे और न सरकार चलाने वाले लोग.
अगर यूनेस्को की इस रिपोर्ट को भारत की ड्राफ्ट नेशनल वाटर पॉलिसी-2012 और योजना आयोग के ड्राफ्ट नेशनल वाटर फ्रेमवर्क एक्ट के संदर्भ में देखें तो यह बात सा़फ हो जाती है कि दोनों ही इस बात को बताने में असफल रहे हैं कि किस तरह से पूरे भारत में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय निजी पानी कंपनियां पानी के निजीकरण को बढ़ावा देने का प्रयास कर रही हैं. यह भारत के लिए ही नहीं, बल्कि विश्व के लिए भी खतरनाक है. भारत की जल नीति जिस तरीक़े से बनाई गई है, उसे जन हितकारी क़तई नहीं कहा जा सकता है. ड्राफ्ट नेशनल वाटर पॉलिसी-2012 ने इस बात की अनुशंसा की है कि सरकार को सर्विस प्रोवाइडर की जगह जो संस्थाएं जल संसाधनों के लिए योजना बनाने, उसे लागू करने और उसका प्रबंधन करने के लिए ज़िम्मेदार है, उसके रेगुलेटर और फैसिलिटेटर की भूमिका निभानी चाहिए. जल से संबंधित कार्य को समुदाय या फिर निजी क्षेत्र को पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मॉडल के ज़रिये स्थानांतरित कर देना चाहिए. जल संसाधन मंत्री पवन कुमार बंसल ने भी ऐसी ही बात 7 मई, 2012 को संसद में कही है. उन्होंने कहा कि नई जल नीति के तहत सरकार ने इस बात की ओर ध्यान दिया है कि राज्य सरकार को इस क्षेत्र में पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप को बढ़ावा देना चाहिए. उन्होंने कहा कि पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप का मतलब यह नहीं है कि पानी को निजी हाथों में दिया जा रहा है यानी इसका निजीकरण किया जा रहा है. उनका कहना है कि हमलोग पानी का निजीकरण नहीं करने जा रहे हैं. उन्होंने कहा कि कई ऐसे उदाहरण हैं, जहां पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल सफल रहा है. उन्होंने कई शहरों के नाम भी लिए, जहां इस तरह के प्रोजेक्ट चलाए जा रहे हैं. इन शहरों में त्रिपुरा, साल्टलेक कोलकाता, चेन्नई, नागपुर, हैदराबाद, हुबली, धारवाड़, बेलगांव, गुलबर्ग, लातूर, देवास, खंडवा, शिवपुर, रायपुर, कोल्हापुर आदि का नाम शामिल है. उनका कहना है कि इन जगहों पर पीपीपी मॉडल सफल रहा है. उन्होंने कहा है कि कई अन्य जगहों पर भी पीपीपी मॉडल अख्तियार किया गया है, जो सफल रहा है और सरकार की नीति इसे बढ़ावा देने की होगी. लेकिन देखा जाए तो तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जा रहा है. तथ्य यह बताता है कि जिन शहरों के नाम पवन बंसल ने लिए हैं, वहां पीपीपी प्रोजेक्ट असफल रहे हैं. एक तऱफ मंत्रीजी कहते हैं कि वह पानी का निजीकरण नहीं कर रहे हैं, तो दूसरी तऱफ सरकार जिस नीति को बढ़ावा दे रही है, उससे यही पता चलता है कि यह पानी के निजीकरण के अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता है. पवन बंसल एक तरह से पानी के निजीकरण के समर्थन में जुटे हैं. जवाहर लाल नेहरू शहरी नवीनीकरण मिशन में पहले 63 शहरों में पीपीपी मॉडल अपनाया गया था, जिसे बढ़ाकर 5000 शहरों तक कर दिया गया है. इन जगहों पर पानी से संबंधित सेवा को सार्वजनिक निजी भागीदारी को स्थानांतरित किया जा रहा है. इसमें निजी कंपनियां शामिल हैं. निजी पानी कंपनियां अपनी जेबें भर रही हैं. अधिकांश शहरों में इनका जाल है. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पानी कंपनियां धीरे-धीरे अपना जाल फैला रही हैं. राजधानी में आए-दिन जल संकट की स्थिति उत्पन्न होती रहती है, जिसके पीछे भी सरकार और निजी पानी कंपनियों की साज़िश को नकारा नहीं जा सकता है. अगर सरकार अपने लोगों को पीने का पानी भी मुहैया नहीं कर पाती है, तो ऐसी सरकार को शासन चलाने का नैतिक आधार कहां है. पवन बंसल ने जिन शहरों का नाम बताया है, उन शहरों की स्थिति भी कमोबेश खराब है. गुलबर्ग की कॉरपोरेटर आरती तिवारी ने कहा है कि कर्नाटक सरकार की चौबीसों घंटे पानी देने की नीति के कारण यहां के लोगों के पानी के बिल में भारी इज़ा़फा हुआ है. उन्होंने कहा कि उनके परिवार का पानी बिल प्रतिमाह 3500 रुपये आ रहा है. उनका कहना है कि लोकतंत्र का मतलब अब बदल गया है.
पूरे भारत में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय निजी पानी कंपनियां पानी के निजीकरण को बढ़ावा देने का प्रयास कर रही हैं. यह भारत के लिए ही नहीं, बल्कि विश्व के लिए भी खतरनाक है. भारत की जल नीति जिस तरीक़े से बनाई गई है, उसे जन हितकारी क़तई नहीं कहा जा सकता है. ड्राफ्ट नेशनल वाटर पॉलिसी-2012 ने इस बात की अनुशंसा की है कि सरकार को सर्विस प्रोवाइडर की जगह जो संस्थाएं जल संसाधनों के लिए योजना बनाने, उसे लागू करने और उसका प्रबंधन करने के लिए ज़िम्मेदार है, उसके रेगुलेटर और फैसिलिटेटर की भूमिका निभानी चाहिए.
अब इसका मतलब हो गया है कि यह लोगों की भागीदारी के बिना सरकार है, जो लोगों को खरीदकर बनती है और सरकार बनाने के बाद लोगों को भूल जाती है. आज के लोकतंत्र की परिभाषा यही है. कहने का मतलब यही है कि पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप का मतलब निजीकरण के अलावा कुछ भी नहीं है. न केवल यूनेस्को की रिपोर्ट, बल्कि भारत सरकार द्वारा बनाई गई नीतियों में भी इस बात को नज़रअंदाज़ किया गया है कि पानी के निजीकरण के क्या-क्या खतरे हो सकते हैं. इस रिपोर्ट को तैयार करने वालों में अपनी रिपोर्ट के माध्यम से एक तरह से पानी के निजीकरण को ही बढ़ावा देने की कोशिश की है. जिस तरह की बाज़ार नीति अन्य क्षेत्रों में लागू है, उसी तरह की नीति पेयजल के लिए भी लागू की जा रही है. इन लोगों ने यह नहीं समझा कि जीने के अधिकार का एक पक्ष पानी का अधिकार भी है. पीने का पानी सभी लोगों को मिले, यह एक मौलिक अधिकार है. लेकिन जिस तरह की नीति बनाई गई है, उससे क्या इस मौलिक अधिकार की सुरक्षा हो पाएगी. ऐसा लगता तो नहीं है. अगर पानी का निजीकरण किया गया तो लोगों को पीने के पानी के लिए भी इन निजी कंपनियों पर निर्भर रहना पड़ेगा. यह एक साज़िश है राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, जिसके माध्यम से पूंजीवाद का विस्तार किया जा रहा है. हर वस्तु को निजी हाथों में देने का क्या मतलब होता है. क्या देश को बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया जाएगा? क्या देश के लोगों के भाग्य का फैसला कुछ पूंजीपति करेंगे? अगर ऐसा हुआ तो फिर लोकतंत्र का क्या मतलब है? यह तो एक समुदाय द्वारा चलाया जाने वाला शासन होगा. सरकार को इस पर गंभीरता से विचार करना होगा, नहीं तो लोग सड़कों पर उतर आएंगे और फिर न तो यह सरकार रहेगी और न सरकार के पानी का निजीकरण करने वाले नेता.
http://www.chauthiduniya.com/2012/07/the-risk-of-water-policy.html
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