अभी वैश्विक स्तर पर यह मुहिम चल रही है कि पर्यावरण के नुक़सान को किस तरह से कम किया जाए. विकसित देश यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि वे पर्यावरण संरक्षण के प्रति का़फी गंभीर हैं. लेकिन उनकी कथनी और करनी में ज़मीन-आसमान का अंतर है. जिस तरह से जहाज़ तो़डने के लिए दक्षिण एशिया की बंदरगाहों का इस्तेमाल किया जा रहा है, उससे तो ऐसा ही लगता है. काम में न आने वाले जहाज़ों को भारत, पाकिस्तान तथा बांग्लादेश की बंदरगाहों पर तोड़ा जाता है, जिससे पर्यावरण को नुक़सान पहुंचाने वाले कई खतरनाक पदार्थ निकलते हैं. इन खतरनाक पदार्थों से पर्यावरण को तो ऩुकसान पहुंचता ही है, साथ ही काम करने वाले मज़दूरों के स्वास्थ्य पर भी का़फी बुरा असर पड़ता है. इससे समुद्री जीवों का जीवन भी खतरे में पड़ गया है.
समुद्री पर्यावरण और तटवर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की सुरक्षा के लिए यह ज़रूरी है कि जहाज़ों को तोड़ने की नई तकनीकों का इस्तेमाल किया जाए. इन तकनीकों के माध्यम से इससे निकलने वाले खतरनाक पदार्थों के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों को कम किया जा सकता है. इसके लिए एक गाइडलाइन भी दी गई है, जो हांगकांग कन्वेंशन को और सशक्त कर सकती है. हालांकि यह तकनीक थोड़ी महंगी होती है, लेकिन पर्यावरण के ऩुकसान को कम करने के लिए इसका इस्तेमाल ज़रूरी है.
हालांकि जहाज़ तो़डने से होने वाले पर्यावरणीय ऩुकसान को कम करने के लिए वैश्विक स्तर पर कई बैठकें हुईं, लेकिन जो नीतियां बनाई गई, उनमें इतनी खामियां हैं कि इससे सही उद्देश्य की प्राप्ति संभव नहीं दिख रही है. 12-13 मार्च, 2012 को सिंगापुर में चौथा ट्रेड विंड्स शिप रिसाइकलिंग फोरम की बैठक हुई. 9 फरवरी, 2012 को गुड़गांव में स्टील स्क्रैप मीट का आयोजन किया गया. 27 फरवरी से 2 मार्च के बीच इंटरनेशनल मेरिटाइम ऑर्गेनाइजेशन की मेराइन इंवोर्नमेंट प्रोटेक्शन कमेटी की 63वीं बैठक हुई, जिसमें वेस्ट मैनेजमेंट यूनिट के प्रमुख जुलिया गार्सिया बर्गीस ने अपने विचार रखे. यूरोपीय कमिशन के डीजी पर्यावरण ने बु्रसेल्स में भारतीय दूतावास के सलाहकार राजगोपाल शर्मा को 20 दिसंबर, 2011 को एक पत्र लिखा, जिसमें कहा गया था कि 200 शिप अलंग बंदरगाह पर रिसाइकल के लिए प़डे हैं. इसमें अधिकांश न केवल पर्यावरण के लिहाज़ से खतरनाक हैं, बल्कि बीमारी पैदा करने वाले भी हैं. इसमें अधिकांश जहाज़ों को अवैधानिक रूप से यहां लाया गया है. बर्गीस के साथ बातचीत के आधार पर एक पत्र पर्यावरण मंत्रालय को भेजा गया, जिसमें यह कहा गया है कि यूरोपीय संघ के इंटरनेशनल मर्चेंट फ्लीट में से 17 फीसदी जहाज़ जो 25 साल से रिसाइकलिंग के लिए पड़े हुए हैं, को भारतीय बंदरगाहों पर भेज दिया गया है. इस पत्र में इस बात का ज़िक्र किया गया है कि यूरोपीय आयोग के अनुसार, अधिकांश जहाज़ जिन्हें रिसाइकलिंग के लिए भेजा जा रहा है, वे यूरोपीय संघ के वेस्ट शिपमेंट रेगुलेशन के अनुसार अवैधानिक है. रेगुलेशन 1013/2006 इसे अनुमति नहीं देता है. शिप कंपनियों और विकसित देशों की अनुशंसाओं के आधार पर आईएमओ की शिप रिसाइकलिंग कन्वेंशन तैयार की गई तथा इसे स्वीकार किया गया. भारत ने इसे उद्योगपतियों और पर्यावरण सुरक्षा के लिए काम करने वाले समूहों के विरोध के कारण स्वीकार नहीं किया. गोपाल शर्मा के पत्र में इस बात का भी ज़िक्र किया गया है कि यूरोपीय संघ शिप रिसाइकलिंग के लिए हांगकांग में 2009 में हुई आईएमओ कन्वेंशन की आवश्यकताओं के आधार पर एक नया नियंत्रक तरीक़ा बनाया है. यही नहीं, यूरोप और अमेरिका के मज़दूर संगठन और एनजीओ भी गुजरात की अलंग बंदरगाह पर काम करने वाले मज़दूरों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं. ये संगठन अपनी सरकार की नीतियों का ही समर्थन करते नज़र आते हैं. उन्होंने जानबूझकर भारत या अन्य दक्षिण एशियाई देशों की बंदरगाहों पर जहाज़ तोड़ने वाले मज़दूरों को अपने से अलग रखा है. हालांकि इसमें इन देशों की सरकारों की नीतियां भी कम ज़िम्मेदार नहीं हैं. इन देशों की नीतियों की वजह से ही जहाज़ तो़डने का अवैध कारोबार धड़ल्ले से चलाया जा रहा है.
बर्गीस ने बु्रसेल्स में गोपाल शर्मा को कहा कि जितने भी बेकार जहाज़ भारत में तोड़ने के लिए भेजे जाते हैं, वे सभी यूरोपीय आयोग के इयू वेस्ट शिपमेंट रेगुलेशन 2006 के अनुसार अवैधानिक हैं. लेकिन दूसरी तरह यूरोपीय आयोग इसे वैधानिक बनाने की कोशिश कर रहा है. यूरोपीय कमीशन का यह दोहरा मापदंड है, जो यह दर्शाता है कि यूरोपीय आयोग किसी बड़े दबाव में काम कर रहा है. यह दबाव किसी और का नहीं, बल्कि जहाज़ कंपनियों का है. इस दबाव के कारण यूरोपीय आयोग अपने ही द्वारा बनाए गए नियमों को बनाए रखने में नाकाम रहा है. यूरोपीय संघ इन कंपनियों को निराश नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए उनकी आवश्यकता है. इसके साथ-साथ वे विकासशील देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौता करने के लिए भी उत्सुक हैं, ताकि उनकी बिगड़ती अर्थव्यवस्था को आधार दिया जा सके. अब यूरोपीय संघ अपने प्रावधानों को कमज़ोर करना चाहता है, क्योंकि इन्हीं प्रावधानों का हवाला देकर भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के कुछ एनजीओ अपने देश में जहाज़ों को तोड़े जाने का विरोध करते हैं. ये एनजीओ पर्यावरण सुरक्षा के लिए काम करते हैं तथा यहां काम करने वाले मज़दूरों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों के प्रति इन मज़दूरों को जागरूक करते हैं. लेकिन बेरोज़गारी की मार झेल रहे ये मज़दूर अपना पेट भरने के लिए अपने स्वास्थ्य की अवहेलना करते हैं.
गुजरात की अलंग बंदरगाह पर जहाज़ों को तोड़ना अवैधानिक है, क्योंकि ये जहाज़ जहां तोड़े जाते हैं वह मेराइन नेशनल पार्क है. मेराइन नेशनल पार्क जामनगर एक महत्वपूर्ण अभ्यारण्य है, जहां कई तरह के विशिष्ट समुद्री जीव निवास करते हैं. नेशनल पार्क होने के कारण भारत सरकार की अनुमति के बिना यहां समुद्री जहाज़ों को तोड़ा नहीं जा सकता है, क्योंकि इससे पर्यावरण को ऩुकसान होता है. इन जहाज़ों को तोड़ने से निकलने वाले खतरनाक केमिकल यहां के समुद्री जीवों को ऩुकसान पहुंचाते हैं. चीफ फॉरेस्ट कंजर्वेटर के ऑफिस से 21 नवंबर, 2011 को एक आदेश पारित किया गया है, जिसमें यह कहा गया है कि साचान शिप ब्रेकिंग यार्ड को जो जगह दी गई है उसे निरस्त कर दिया जाए, क्योंकि यह जगह फॉरेस्ट/मेराइन संचुरी का हिस्सा है. इसमें कहा गया है कि गुजरात मेरिटाइम बोर्ड इन जगहों पर जहाज़ तोड़ने का आदेश नहीं दे सकता है. अगर जीएमबी (गुजरात मेरिटाइम बोर्ड) ऐसा करता है तो यह मेराइन नेशनल पार्क के नियमों की अवहेलना है. इसलिए जब तक भारत सरकार की अनुमति नहीं मिल जाती है, तब तक यहां जहाज़ तोड़ने का काम रोक देना चाहिए. जीएमबी को भी इसमें सावधानी बरतनी चाहिए. अगर इस तरह के काम जारी रहते हैं तो इसके लिए जीएमबी को ही ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा. चीफ फॉरेस्ट कंजर्वेटर के आदेश में इस बात का सा़फ तौर पर ज़िक्र किया गया है कि जहाज़ तो़डने के समय खतरनाक पदार्थ जैसे आर्सेनिक, मर्करी, एसबेस्टस, तेल आदि निकलते हैं, जो समुद्री जीवों के लिए का़फी खतरनाक हैं. इससे मेराइन नेशनल पार्क और समुद्री अभ्यारण्य के संरक्षण में बाधा उत्पन्न होती है. अब जब समुद्री पर्यावरण को बचाने के लिए मुहिम चलाई जा रही है, तब इस तरह की अवैधानिक कार्रवाइयों पर रोक नहीं लगाना सरकार की कमज़ोरी को प्रदर्शित करता है. सरकार इसकेप्रति संवेदनशील नज़र नहीं आती है. उसका रवैया दोहरा है. एक तऱफ सरकार पर्यावरण सुरक्षा पर करोड़ों रुपये खर्च करती है, तो दूसरी तऱफ वह इसे नुक़सान पहुंचाने वाले कार्यों को बंद करने के बदले इसे बढ़ावा दे रही है. यूरोपीय संघ का रवैया भी ऐसा ही है. वह एक ओर तो क़ानून बनाती है, तो दूसरी ओर इन क़ानूनों का उल्लंघन करती नज़र आती है. हो सकता है कि उन पर दबाव हो, लेकिन ऐसे दबाव के नाम पर कुछ विकासशील देशों के लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता है. यूरोप के कुछ एनजीओ जो पर्यावरण संरक्षण के लिए काम कर रहे हैं, अब मानवीय से ज़्यादा राष्ट्रीय हो गए हैं. वे भी अपनी सरकार के इन ग़लत क़दमों का खुलकर विरोध नहीं करते हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने हितों की रक्षा के लिए ही क़ानून बनाए जा रहे हैं. हांगकांग कन्वेंशन भी यथास्थिति बनाए रखने की कोशिश ही है. इसमें भी दक्षिण एशिया की बंदरगाहों पर हो रहे इन अवैधानिक कामों को बंद कराने के लिए कोई कठोर क़दम उठाए जाने का प्रावधान नहीं किया गया है. इन बंदरगाहों पर काम करने वाले मज़दूर तिल-तिल मर रहे हैं. उन्हें कैंसर जैसी घातक बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है. इन मज़दूरों की ओर सरकार का कोई ध्यान नहीं है.
समुद्री पर्यावरण और तटवर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की सुरक्षा के लिए यह ज़रूरी है कि जहाज़ों को तोड़ने की नई तकनीकों का इस्तेमाल किया जाए. इन तकनीकों के माध्यम से इससे निकलने वाले खतरनाक पदार्थों के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों को कम किया जा सकता है. इसके लिए एक गाइडलाइन भी दी गई है, जो हांगकांग कन्वेंशन को और सशक्त कर सकती है. हालांकि यह तकनीक थोड़ी महंगी होती है, लेकिन पर्यावरण के ऩुकसान को कम करने के लिए इसका इस्तेमाल ज़रूरी है. इस महंगी तकनीक का इस्तेमाल यूरोप और अमेरिका में होता है. लेकिन जहाज़ के मालिक कम धन खर्च करना चाहते हैं, जिससे वह अपने जहाज़ को तोड़ने के लिए दक्षिण एशिया की बंदरगाहों पर भेज देते हैं. इसमें कई लोग शामिल होते हैं, जो सस्ती दर पर इन जहाज़ों को खरीदकर इन्हें तोड़ते हैं, लेकिन पर्यावरण को नुक़सान पहुंचा जाते हैं. इससे न केवल पर्यावरण को नुक़सान होता है, बल्कि इन्हें तोड़ने के काम में जिन मज़दूरों को लगाया जाता है, उन्हें भयानक बीमारियों का सामना करना पड़ता है. साथ ही इससे निकलने वाले ़खतरनाक रसायनों से जलीय जीव और तटवर्ती क्षेत्र में रहने वाले लोग भी प्रभावित होते हैं. इसलिए भारत सरकार को अपनी डंपिंग पॉलिसी पर पुनर्विचार करना चाहिए और ऐसा सशक्त क़ानून बनाना चाहिए, जिससे इस तरह की अवैधानिक कामों पर अंकुश लगाया जा सके. यूरोपीय संघ भी अपनी कथनी और करनी में समानता लाए तथा यह तय करे कि उसे आर्थिक लाभ के लिए पर्यावरणीय नुक़सान को बढ़ावा नहीं दिया जाएगा. अगर इस ओर जल्द ही ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में इसका बहुत बुरा परिणाम देखने को मिल सकता है. उस समय हमारे पास पछताने के अलावा कोई चारा नहीं होगा.
http://www.chauthiduniya.com/2012/03/india-in-transition-side-of-the-imo-ship-dumping-policy-europes-dual-attitude.html
Small Modular Reactors: Will they change anything?
-
Major General Sudhir Vombatkere Major General S.G. Vombatkere retired as
the Additional Director General, Discipline & Vigilance in Army HQ, New
Delhi. H...
Post a Comment