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क्या दिल्ली में दूसरा भोपाल गैस कांड हो सकता है ?

Written By Krishna on Tuesday, April 24, 2012 | 3:26 AM

दिल्ली | भोपाल गैस त्रासदी अभी हम भूले नहीं हैं। बिना प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की मंजूरी के ओखला बिजली संयंत्र चालू हो गया है। वहीं नरेला-बवाना और गाजीपुर में बिजली संयंत्र निर्माणाधीन है। अगर यह तीनों बिजली परियोजनाएं दिल्ली में बनी तो भोपाल जैसा दूसरा हादसा दिल्ली में भी हो सकता है।

सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन जिंदल जैसी कंपनियों को अनुदान देकर कर रही है। ऐसे संयंत्रों को तुरंत बंद किया जाना चाहिए। अन्यथा हमें दूसरे भोपाल गैस कांड के लिए तैयार रहना चाहिए।’ -टॉक्सिक वॉच के संस्थापक गोपल कृष्ण

बिना किसी तकनीकी जांच और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड मंजूरी के बिना चीन की कचरा से बिजली बनाने वाली तकनीक से दिल्ली के ओखला स्थित संयंत्र में बिजली बनाई जा रही है। इस तरह कचरा जलाकर बिजली बनाने में डाईऑक्सीन नामक खतरनाक गैस निकलती है। दुर्भाग्य यह है कि इस दुष्प्रभाव को जानते हुए भी दिल्ली सरकार दिल्ली वासियों और संयंत्र के मजदूरों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रही है। इसका खुलासा 22 मार्च, 2012 को आए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण आयोग के एक रिपोर्ट से हुआ है। वहीं हाल ही में पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन का कहना है कि ओखला का कचरा से बिजली बनाने वाली संयंत्र पूरी तरह सुरक्षित है। ऐसे में जनता किसकी बातों पर भरोसा करे- पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन की बातों पर या केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण आयोग की रिपोर्ट पर?

केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण आयोग की इस रिपोर्ट से यह भी पता चलता है की कचरा आधारित बिजली संयंत्र से होने वाली त्रासदी के लिए अबतक दिल्ली सरकार ने कोई तैयारी नहीं की है। भोपाल गैस कांड इसका उदाहरण है। इस बाबत केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण आयोग ने ओखला बिजली संयंत्र के जिंदल एकोपोलिस कंपनी के अधिकारियों की कड़ी आलोचना की है। आश्चर्य तो यह है कि कंेद्रीय प्रदूषण नियंत्रण आयोग की रिपोर्ट आने से पहले (जनवरी माह से) ही इस बिजली संयंत्र का चालू होना, कई सवाल खड़े करता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण आयोग की रिपोर्ट के बिना यह संयंत्र चालू कैसे हो गया? दूसरा आयोग की रिपोर्ट इतनी देर से क्यों आई? ऐसे कई गंभीर सवाल सरकार पर भी खड़े होते हैं।

बताते चलें कि कूड़े जलाने से जो गैस निकलती है वह जीवन व पर्यावरण के लिए बेहद खतरनाक है। यही कारण है कि सभी विकसित देशों ने अपने यहां ऐसी परियोजनाओं को बंद कर चुकी है। गौरतलब है कि भारत में पहली बार दिल्ली के तिमारपुर में कचरा से बिजली बनाने की परियोजना 1990 में लगाया गया जो असफल रहा। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या हमारे पास वैसी तकनीक है जो कचरे से सुरक्षित बिजली पैदा कर सके? अगर नहीं तो दिल्ली वासियों के जान जोखिम में डालकर इस चीनी तकनीक से बिजली पैदा करने की क्या आवश्यकता है? बताते चलें कि ओखला के अलावा ऐसा ही बिजली संयंत्र दिल्ली के नरेला-बवाना और गाजीपुर में निर्माणाधीन है।

यही वजह है कि पर्यावरण मंत्रालय ने 1997 में जारी अपने श्वेत पत्र में यह बात स्वीकार की है कि जिस तरीके से शहरी कूड़े को जलाया जा रहा है वह तकनीक सही नहीं है। यहीं सवाल यह उठता है कि अब वह तकनीक सही कैसे हो गया? दूसरी तरफ सन् 2005 में संसदीय समिति ऊर्जा के अध्यक्ष रहे गुरूदास कामत ने कूड़े से बिजली बनाने का यह कहते हुए विरोध किया था कि इस प्रकार की तकनीक नुकसान दायक है। इसलिए इसे बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए। वहीं भारतीय जनता पार्टी के दिल्ली विधान सभा में विपक्ष के नेता विजय कुमार मलहोत्रा ने सांसद रहते हुए 27 जून, 2008 को दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर तेजेंदर खन्ना को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने ओखला प्लांट कोे वहां के वासियों के लिए प्रदूषणकारी बताया था। अब भाजपा के विजन डाक्यूमेंट 2025 में दो और कूड़े से बिजली बनाने वाली संयंत्र बनाने का वादा है। क्या अब यह नुकसानदायक नहीं रही? या विजय कुमार मलहोत्रा सत्ता मोह में इस बात को भूल गए हैं।

इताना ही नहीं तत्कालीन पर्यावरण राज्य मंत्री जयराम रमेश ने भी इस बाबत दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को 1 अप्रैल 2011 को एक पत्र लिखा था। उस पत्र में जयराम रमेश ने ओखला बिजली संयंत्र को खतरनाक बताते हुए लिखा था कि इस तरह के संयंत्रों के पर्यावरणीय मंजूरी की प्रक्रिया में ही गड़बड़ी है। प्रक्रिया में गड़बड़ी भी सरकार के मंशा को बताता है कि कैसे पर्यावरण और स्वस्थ्य के लिए नुकसान दायक होते हुए इस परियोजना की मंजूरी दी गई? कहने का अर्थ यह है कि दिल्ली सरकार भी इस परियोजना के नुकसान दायक पहलुओं को अनदेखा कर रही है। स्पष्ट है, दोनों पार्टियां सत्तालोलुप है। इसलिए उन्हें दिल्ली की जनता की स्वास्थ्य से ज्यादा उन्हें अपनी कुर्सी चिंता सता रही है।

बताते चलें कि ऐसे बिजलीघर न तो कूड़ा निपटाने के लिए बनते हैं और न ही बिजली पैदा करने के लिए। इसके पीछे का कारण कुछ और ही है। इसके अनेक कारणों में से एक कारण यह है कि प्रति मेगावाट की दर से केंद्र सरकार बिजली बनाने वाली कंपनी को डेढ़ करोड़ का अनुदान देती है। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी योजनयाओं को अनुदान देने पर रोक लगा रखी है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन कर केंद्र सरकार इस कंपनी को अनुदान दे रही है। इस तरह केंद्र सरकार भी सवालों के कटघरे में है। टॉक्सिक वॉच के संस्थापक गोपल कृष्ण के अनुसार, ‘‘सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन जिंदल जैसी कंपनियों को अनुदान देकर कर रही है। ऐसे संयंत्रों को तुरंत बंद किया जाना चाहिए। अन्यथा हमें दूसरे भोपाल गैस कांड के लिए तैयार रहना चाहिए।’’

दूसरी तरफ यह परियोजना कचरा आधारित रोजगार को भी समाप्त करता है। दिल्ली को रौशन करने के नाम पर इस परियोजना को हरी झंडी दिया गया है। गौरतलब है कि दिल्ली में लगभग 80 प्रतिशत क्षेत्र के काम को प्राइवेट कंपनी के हाथों में सौंप दिया गया है लेकिन उसके बावजूद भी समस्या का हल नहीं हो पा रहा है।

बताते चलें कि दिल्ली में कचरे की छंटाई के काम में असंगठित क्षेत्र के लगभग 3.5 लाख मजदूर शामिल हैं। इनके द्वारा 20 से 25 प्रतिशत कचरे की छंटाई के बाद 30 प्रतिशत ऐसे कचरे की छंटाई हो जाएगी जो कच्चे माल के रूप में दुबारा इस्तेमाल होगा। साथ ही 50 प्रतिशत वैसा कचरा होगा जिसे जैविक कूड़ा कहते हैं। उससे खाद बनाया जा सकता है। इस तरह कचरे के 80 प्रतिशत भाग का निपटारा तो समुदाय के स्तर पर ही हो सकता है। ऐसे में कूड़े से बिजली बनानेवाली संयंत्र लगाने की आवश्यकता लगभग नहीं है।

संयंत्र कूड़ा बिजली उत्पादन स्थिति
ओखला 2050 मेट्रिक टन 20 मेगावाट चालू है
नरेला-बवाना 4000 मेट्रिक टन 36 मेगावाट निर्माणाधीन
गाजीपुर 1300 मेट्रिक टन 10 मेगावाट निर्माणाधीन

इस परियोजना से हानि

कचरे जलाने से डाईऑक्सीन नाम गैस निकलती है। यह कैंसर के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक रसायन है। कचरे में मौजूद खतरनाक रसायनों को यह तकनीक कई-कई रूपों में वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और पर्यावरण प्रदूषण से हमारे भोजन चक्र का हिस्सा बना देता है। यह जहर केवल धरती या पानी में ही नहीं बल्कि हवा में भी तैरने लगता है। क्योंकि शहरी कूड़े में प्लास्टिक के अलावा पारा भी बहुतायत में मिलता हैं। वैज्ञानिक और व्यावसायिक बुद्धि को किनारे रख दें तो भी क्या हमें यह समझने में दिक्कत है कि प्लास्टिक और पारा के जलने से जो धुंआ निकलता है क्या वह हमारे लिए लाभदायक है?
-संजीव कुमार
http://thepatrika.com/NewsPortal/h?p=mainPage
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+ comments + 1 comments

Anonymous
5:30 AM

What do we do now, Gopaljee? Where are we heading? Mass population reduction maybe after world war 3, Single world Government, New world order?

I mean, just what do we do?

I can't stop comparing our freedom/Banana Republic with that of George Orwell's "Animal Farm".

Horror.

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